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Tuesday, January 17, 2017

सोनचंपा की खुशबू सा मुकुल स्वर


मरीन ड्राइव के मुहाने पर बनी एनसीपीए के विशाल ऑडिटोरियम के दरवाजे पर लगी लंबी लाइन, धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए जब हम दरवाजे तक पहुंचते हैं तो टिकट के साथ इस मखमली खुशबू वाले फूल से स्वागत किया जाता है। कौन सा फूल है जिसकी महक थोड़ी थोड़ी पहचानी सी है। नाम बताया गया सोन चंपा...आेह वही नागचंपा का भाई बंद फूल जिसको लेकर मैं बचपन से दीवाना रहा हूं। जो अक्सर मैं फॉरेस्ट रेस्ट हाउस से ले आता था और डांट खाता था कि इसकी खुशबू से सांप खिंचे चले आते हैं मत लाया करो इन्हें। क्या पहले कभी ऐसी सोनचंपा यहां इस तरह कभी महकी होगी? यह सोचते सोचते मैं अपनी सीट पर पहुंच गया हूं तो चकित हूं कि परफॉर्मिंग आर्ट के लिए इस कदर बेहतरीन मंच और ऑडिटोरियम भी हो सकता है... तो क्या यहां मुकुल किसी अलग अंदाज में नजर आएंगे? गाने का तो उनका अपना अंदाज है जो न बदला है न बदलेगा लेकिन मिलने का उनका अपना अंदाज है जो कभी एक बार से दूसरी बार में मेल नहीं खाता। सीट पर मेरे बैठने से लेकर मुकुल जी के मंच तक आने पर कई फ्लैशबैक कौंधे जो आज साल भर बाद सारे और हूबहू तो याद नहीं हैं लेकिन कुछ खास तो याद ही हैं।
फ्लैश 1-सबसे स्याह याद, दफ्तर में काम निपटाते अंधेरा हो चला है कि अचानक एक फोन आता है। मुकुल जी का आज बर्थडे है और जिस नशा मुक्ति केंद्र में हैं वहां किसी को यह बात पता नहीं हैं, यह भी नहीं कि कौन से सेंटर पर। पंद्रह मिनट बाद जाकर साफ होता है कि सरकारी नशामुक्ति केंद्र में हैं और यह बाणगंगा के पागलखाने के भीतर ही एक हिस्से में है। अपने रिपोर्टर से कहता हूं कि जैसे भी हो मिलने चलना है तो वह समझाने की जुगत में है कि सेंटर पर इतनी रात गए किसी से मिलना मुश्किल होगा लेकिन मेरी जिद के बाद वह व्यवस्था करा देता है। शायद अमावस की रात बिजली पूरे कैंपस में नहीं है, मैं सेंटर के मेंटर से ख्वाहिश जताता हूं कि मुकुल जी से मिलना है तो वह कहता है एक ही मोमबत्ती है इसलिए मैं उन्हें बाहर ही ले आता हूं। उसे बिना बताए मैं भी अंदर चला जाता हूं और उनके साथ ही बाहर लौटता हूं। वो अपनी बार बार डिमांड के बीच कुछ गुनगुनाते हैं और हम हैं कि बर्थडे ब्वॉय की जरा सी इच्छा पूरी कर सकने की हालत में होने के बावजूद पूरी नहीं कर सकते। भारी मन से उन्हें लौटते हुए कायम है गुनगुनाहट...
फ्लैश 2-रिवर साइड के एक दुकाननुमा घर या घरनुमा दुकान में रुके मुकुल को दीदी के घर तक लाने और खाने के बाद सुपारी के साथ मघई बनने तक के बीच भी कई बार वही हलके हलके सुर गूंज रहे हैं। रातरानी देखकर खुश होते हुए और बगिया की तारीफ करते हुए...
फ्लैश 3-गांधी हॉल का खचाखच भरा हॉल, मंत्री से लेकर संतरी तक सब दरी पर बैठकर उस अनुशासन से मुकुल जी को सुनते हुए जिसमें भर गर्मी में पंखे तक बंद कर दिए गए हैं लेकिन मजाल कि कहीं कोई उफ हो। दिल तक तर कर देने वाली रात लेकिन जब कार्यक्रम खत्म करते हुए मुकुल उठे तो लगे कि कितनी प्यास तो बाकी ही रह गई है। संगीत निष्ठा की परंपरा वाले इंदौर के सबसे सफल संगीत आयोजनों में से एक...
फ्लैश 4-खजूरी बाजार के पीछे एक घर की पहली मंजिल, निहायत घरेलू सा धार्मिक कार्यक्रम। खुद के लिए तबले की संगत खुद ही देते हुए। लंबी बैठक और कई सारे अभंग व भजन। कुछ चुनिंदा लोगों के बीच बिलकुल घर जैसे बातावरण में किसी दैवीय आवाज का अहसास...
फ्लैश 5-रेडियो कॉलोनी वाले मकान के ठीक पड़ोस में 'अज्ञातवास' के दौरान अचानक मिले, कितनी भी देर बैठ लें उनके पास समय कम पड़ ही जाता है। न जाने कितनी बातें होती हैं लेकिन दुनियादारी की एक भी नहीं या तो संगीत से जुड़ी कोई बात या स्वाद की या कुछ अपनी यात्रा की...
...और भी फ्लैशबैक पलटकर आएं इससे पहले ही करीने की वेशभूषा में संगतकारों के साथ मुकुल आ बैठते हैं। उनके आते ही महफिल सज जाती है बिना किसी औपचारिकता के। मुंबई के सुधीजन ही नहीं और भी कई शहरों से आए हुए लोग मौजूद हैं। आवाज का जादू तारी होता जाता है। प्यास बुझती जाती है और उसी दर से बढ़ती भी जाती है। चार घंटे कब निकल जाते हैं पता भी नहीं चलता। पूरा ऑडिटोरियम सोन चंपा और मुकुल के सुरों की महक से भरा हुआ है इसलिए इसे छोड़ने की इच्छा ही नहीं हो रही लेकिन दस्तूर यही है कि हर सुहाने सपने तक की मियाद तय है...जमुना किनारे मेरो गांव के साथ मुकुल श्रोताओं को कार्यक्रम समाप्त होने की सूचना देते हैं तो पूरा हॉल इतनी देर तक तालियां बजाता रहता है जितनी शायद की इस हॉ में किसी कलाकार को एक साथ मिली होंगी। बाहर निकलते तक सोन चंपा की खुशबू सुरीली भी हो गई लगती है। पूरे सप्ताह वो तीन फूल घर को महकाते रहे जिन्होंने आज मुझे सोनचंपा का यह पौधा लाने पर विवश कर दिया है। उन सुरों का खुमार अब भी तारी है। नाटक से लेकर फिल्मों तक कितनी ही बार समीक्षाएं लिखने का काम पड़ा लेकिन सब यदि तुरंत लिख लिया तो ठीक। यह पहला मौका है जब किसी कार्यक्रम पर साल भर बाद भी याद साझा करना ऐसा लग रहा है जैसे बस अभी तो खत्म हुई हो सुरों की यह महफिल। हद हद जाए हर कोई अनहद जाए न कोय की कबीराना तर्ज पर इस महफिल को जताना हो तो यही कहा जा सकता है कि
हद हद गाए हर कोई अनहद गाए न कोय...और गाते गाते अनहद तक पहुंच जाए वह नाम बस एक ही हो सकता है मुकुल शिवपुत्र।

Sunday, August 14, 2016

न जाने क्या जादू है...



अहसास का मतलब खुद को महसूस करने के लिए खोल देना है यह बात अब समझ आती है लेकिन स्वतंत्रता शब्द ने तो जाने कब से मुझे उलझा रखा है। शायद तभी से जब स्वतंत्रता (दिवस)का मतलब महज बूंदी के दो लड्डू से निकला करता था। कान्वेंट स्कूल की नर्सरी से थर्ड-फोर्थ तक तो इसके समझने का सवाल ही नहीं उठता था लेकिन आदिवासी स्कूल की टाटपट्टी पर छठी-सातवीं करते करते यह समझ आ गया कि गुलामी का विपरीतार्थी शब्द आजादी है, इस शब्द ने दो परीक्षाओं में एक एक, दो दो नंबर भी दिलाए। फिर एक दिन मम्मी(चूंकि तय परिभाषाओं से अलग चलना आदत में है इसलिए बता दूं कि यह कहते हुए मैं इसमें नानीजी को स्केच करूंगा) ने कहा स्वतंत्रता अलग बात है और स्वच्छंदता एकदम अलग और निरंकुशता तो बहुत ही अलग। स्वतंत्र होने में आपका खुद का एक तंत्र तो होता ही है।समझ नहीं आया तो भी बात को मैंने दिमाग के सेफ वॉल्ट में रख लिया क्योंकि यह पता था बात आगे काम आने जैसी बात है। नवीं दसवीं तक ये परिभाषाएं खंगाली जा चुकी थीं लेकिन तब अखबारों में नजर आने लगीं स्वाधीनता दिवस की बधाइयां। कमोबेश इसी समय संधि विच्छेद पढ़ रहे थे तो यह भी पता चल गया कि स्वाधीन उस पराधीन शब्द का उलट है जिससे जुड़ी चौपाई हम रामचरितमानस के पाठ में अलग अलग धुन में गाते हैंपराधीन सपनेहूं सुख नाहींलेकिन यह भी आजादी जैसा ही कम अपीलिंग सा शब्द लगा। आजादी यदि गुलामी से उलट है तो स्वाधीन में भी अधीनता का नकारात्मक सेंस तो है ही। जब मैं अपनी ही तरह सोच रहा हूं, अपने ही तंत्र से चल रहा हूं तो उसे स्व अधीन कहना रुचिकर भी नहीं लगता। वैसे एक संभावना यह भी है किस्वतंत्रका अर्थ जिन्होंनेऔर जिस तरह समझाने की कोशिश की थी वह भाव बहुत गहरा था। शायद इसीलिए आजादी से लेकर स्वाधीनता तक किसी शब्द में उतनी कशिश नहीं लगी जितनी स्वतंत्रता शब्द में महसूस होती रही और आज भी होती है। कॉलेज के पहले ही साल में पंजाबी कवि पाशकी किताब से रुबरु हुए तो उनकी कविताओं से स्वतंत्रता की परिभाषा में काफी कुछ जुड़ा और काफी कुछ घटा। यहीं तय हुआ कि अब एक ऐसा स्व तंत्र बनाया जाए जो किसी दूसरे के तंत्र से न टकराए यानी मेरी अपनी व्यवस्था जो दूसरों के तंत्र में न खलल डाले और न किसी और से प्रभावित हो। ऐसी कोशिश जब जब विफल होती बुरा लगता लेकिन एक दिन उस गेम एरीना में खड़ा था जहां कारनुमा खिलौने आपस में टकराते रहते हैं, इनकी आपस में टकराहट देखकर लगा कि आप जितना खुद की कार (ही कह लें क्या बुरा है) को बचाने की कोशिश करेंगे उतना कोई किसी और के आकर टकराने की संभावना ज्यादा हो जाती है। पहले यह गेम बुरा सा लगा लेकिन चूंकि महसूस करने के लिए खुद को खोल रखा था इसलिए अहसास हुआ कि ये कारनुमा खिलौने इन टकराहटों से टूट नहीं जाते हैं, बल्कि हर ऐसी टक्कर के बाद अगली टकराहट तक उन्मुक्त महसूस करते हैं। खुद किसी दूसरे तंत्र से टकरा जाने के लिए खुले हुए या किसी और के आपके तंत्र से आ टकराने की चिंता से बेफिक्र। हर पंद्रह अगस्त पर मैं बूंदी के दो लड्डुओं से लेकर स्वाधीन, आजाद जैसे शब्दों से दो चार होता हूं लेकिन सच कहूं मुझे सिर्फ एक ही शब्द खींचता है और वह है स्वतंत्रता। न जाने क्या जादू है इस शब्द में जो मेरे रोम रोम को महसूस करने के लिए खोल देता है ताकि हर अहसास सच्चा सा हो। शायद यही वजह है कि खलील जिब्रान की प्यार और स्वतंत्रता को जोड़ती हुई एक बात भुलाए नहीं भूलतीमैं जिसे प्यार करता हूं चाहता हूं वह मुक्त रहे यहां तक कि मुझसे भी

Monday, July 18, 2016

newsroom kuchh samvad

अख़बारों की दुनिया से नाता तो तब से है जब से स्कूल में पढ़ रहा था लेकिन पिछले ३ साल में न्यूज़रूम में जो संवाद सुने हैं वो कुछ हट कर रहे हैं, इन् हक़ीक़तों से रूबरू करवाने के लिए मनोज बिंवाल जैसे संपादक का शुक्रिया,,,ये न किसी पर कमेंट हैं और न इनसे आपको  न्यूज़रूम की हकीकत पता चल सकेगी लेकिन बानगी जरूर मिलेगी कि अख़बारों  ख़बरें कैसे आती हैं और उस से भी बढ़ कर कैसे गायब कर दी जाती हैं...

1  ये अपना विज्ञापनदाता  तो नहीं है मार्केटिंग वालों से पूछना पड़ेगा
2  अरे ये खबर मत करना यार सेठ  पहुँच जायेगा
3  सुनील, मेरी मुलाकात कराओ कमिश्नर से और पहले समझाओ कि नक्शा  ना अटके
4  खाने वाले कॉलम में उसकी कचोरी लगायी तो 20- 25 ले भी आनी थी ऐसे कैसे चलेगा
5 कल्पेश जी ने हाँ कह दिया है  स्टोरी को उल्टा करके चलाओ
6 तुमको मैंने कहा न  जैसे भी हो शालीमार टाउनशिप की खबर लाओ,  बस
7 हाँ आप शिव अग्रवाल (बिल्डर, ) की और कौन कौन सी स्टोरी बता रहे थे, बताओ तो सही (उस रिपोर्टर से जिसे इनका इस बिल्डर से लेन देन  पता नहीं था और जो फिलहाल जेल में)
8 ज्यादा ईमानदार होने का नाटक मत करो जैसा मैं बोल  वैसा करो
9 आज अखबार में गलती मत छोड़ना,  कल  जी शहर में ही हैं
10 आदित्य यार कैलाश  (फिलहाल महासचिव भाजपा ) पर मत लिखा करो कॉलम (बिटवीन द लाइन्स ) में,  नीरज बार बार कल्पेश जी को बोल चुके हैं, बाकी तो तुम्हे पता ही है...

Sunday, July 17, 2016

मीडियाई धुरंधरों के खत हवा में तैर रहे हैं और इनके लाजवाब जवाब भी आ रहे हों लेकिन इस दौर में भी हमारे खतों को जवाब उन्होंने नहीं दिया जिन्हें ये संबोधित किए गए और जिन पर इनके जवाब देने की जिम्मेदारी थी; छह महीने लंबे इंतजार पर भी न एमडी महोदय की तरफ से कोई जवाब है और न उन समूह संपादक महोदय की तरफ से जो रेल से भी लंबा लिखते हैं; दो तीन खत तो यशवंत भाई के सौजन्य से सभी के सामने पहुंच गए हैं जो बाकी रह गए हैं उनके साथ ही उन वजहों को भी सामने लाने की कोशिश होगी जिनके चलते ईमानदारी का राग अलापने वाले भी किसी जालसाज को बचाने के लिए हद तक नीचे चले जाते हैं; फिलहाल तो उन मामलों की बानगी देखिए जिनसे मैं पिछले छह महीनों से दो चार हो रहा हूं;



मीडिया के साथियों....
मैं आदित्य पांडे इंदौर डीबी स्टार में 3 अगस्त 2008 से कार्यरत हूं और फिलहाल डीएनई की पोस्ट पर हूं. लगभग 3 साल पहले संपादक के तौर पर आए श्री मनोज बिनवाल को मैं कभी भी पसंद नहीं रहा क्योंकि वे कमोबेश हर खबर में पैसा बनाने की राह तलाशने को पत्रकारिता मानते हैं. दिसंबर 2015 में मनोज बिनवाल ने मुझे सूचना दी कि न्यू ईयर टीम के साथ मुझे काम करने के लिए नेशनल एडीटर कल्पेश याग्निक ने चुना है. मैंने इस टीम में काम किया और एक जनवरी 2016 से मैं फिर अपने मूल काम यानी डीबी स्टार में लौट आया.
जनवरी 2016 में अचानक एक दिन मुझे कल्पेश याग्निक ने बुलाकर कहा कि आप न हमारे साथ काम कर रहे हैं और न ही डीबी स्टार में काम कर रहे हैं. मैं इस बात पर चौंक गया क्योंकि मैं लगातार अपना काम कर रहा था और आफिस के रिकार्ड से लेकर वीडियो रिकार्डिंग तक सभी से मेरी बात सही साबित हो रही थी लेकिन बिनवाल ने न जाने मेरे खिलाफ कल्पेश को क्या क्या कहा था कि वे सच सुनने को तैयार ही नहीं थे.
मैंने काफी कहा कि बिनवाल को सामने बुलाकर बात साफ कर ली जाए लेकिन इस पर भी कल्पेश राजी नहीं हुए. इस बीच मुझे पता चला कि बिनवाल ने एचआर के पास भी मेरी काफी शिकायतें की हैं लिहाजा मैंने एचआर की तत्कालीन स्टेट हेड जया आजाद से शिकायतों की जानकारी ली और बिनवाल के सारे झूठों की हकीकत एचआर हेड के सामने खुद बिनवाल की मौजूदगी में बता दी. इससे बिनवाल का बौखलाना स्वाभाविक था और इसी रौ में उन्होंने मुझे कह दिया कि अब मैं इंदौर तो क्या मध्यप्रदेश में भी काम नहीं कर सकता. लगभग एक महीने तक मुझे कोई काम नहीं दिया गया और डीबी स्टार में मेरी जगह एक रिटायर व्यक्ति को लाकर बैठा दिया गया.

मार्च अंत तक आते आते मेरा तबादला रायपुर कर दिया गया और इससे पहले यह देख लिया गया कि मेरे वहां जाने की कोई संभावना तो नहीं है. मैंने बजाए इस्तीफा देने के नेशनल एडीटर और एमडी सुधीर अग्रवाल से मिलकर अपनी बात रखने की राह चुनना बेहतर समझा और इसके लिए आवश्यक था कि मैं संस्थान में बना रहूं, इसलिए मैंने रायपुर में ज्वाइनिंग दे भी दी. पिछले छह महीने के समय में मैं एमडी को ई मेल और रजिस्टर्ड लेटर के जरिए सारी जानकारी भेज चुका हूं और हर बार मिलने के लिए समय की मांग भी कर चुका हूं. यही हालत कल्पेश याग्निक के मामले में है. चूंकि बिनवाल तो कल्पेश के खास आदमी हैं और तमाम हेरफेर व जालसाजी के मामलों की जानकारी होते हुए भी उन्हें बचाते रहे हैं इसलिए मुझे उनसे तो कोई उम्मीद भी नहीं थी लेकिन एमडी की तरफ से भी कोई जवाब मुझे नहीं मिला है.
इस पूरे मामले में एक कमाल की बात यह भी है कि बिनवाल पर अदालती आदेश के बाद पुलिस ने जालसाजी के एक मामले में एफआइआर भी दर्ज कर रखी है और भूमाफियाओं से उनके संबंध को लेकर कई सबूत भी कई स्तरों पर पेश किए जा चुके हैं. खुद भास्कर में बिनवाल पर अंदरूनी जांच हुई थी जिसमें महाशय के खिलाफ कई टिप्पणियां थीं लेकिन इस पर सच के पक्ष में जमकर लिखने वाले कल्पेश याग्निक ने ही कभी कार्रवाई नहीं होने दी. बिनवाल ने मेरे खिलाफ लंबी साजिशें कीं लेकिन एक मामले में भी वे कोई ठोस बात नहीं कह सके इसलिए उन्होंने मैनेजमेंट के गले यह बात उतारी कि यह व्यक्ति मजीठिया को लेकर दूसरे कर्मचारियों को प्रभावित कर सकता है और खुद भी संस्थान पर कानूनी कार्रवाई की ताक में है.
यही वजह है कि बिना किसी वजह के मेरा रायपुर तबादला कर दिया गया जबकि जालसाज और हर खबर के एवज में पैसे बनाने वाला बिनवाल मजे कर रहा है और अब भी रिपोर्टर वगैरह को साफ कह रहा है कितनी भी एफआईआर हो जाए, मेरा कोई कुछ बुरा नहीं होगा. आश्चर्य तो भास्कर प्रबंधन पर होता है जो एक जालसाज और वसूलीबाज को बचाने के लिए इस हद तक उतर जाता है कि ब्रांड इमेज को भी दांव पर लगाने को तैयार है और अपने एक ऐसे कर्मचारी के खिलाफ है जिसका अब तक का पूरा मीडिया का करियर बेदाग रहा है.
आदित्य पांडेय
adityanaditya@gmail.com


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http://www.bhadas4media.com/print/10161-aditya-pendey-ki-chitthiyan

Monday, May 9, 2016

सागौन का दरवाजा

आखिर क्यों आ जाना चाहिए उसे, सिर्फ इसलिए कि हम दीनहीन की तरह उसे पुकार रहे हैं? कब ऐसा हुआ कि हमने लकड़ी का मोलतोल करने से बचने की ईमानदार कोशिश की हो? यदि हम बाजार संस्कृति में जी रहे हैं तो हमें इसी तरीके से समस्याओं से भी जूझना होगा। नारों, दावों और वादों से आप हंगामा तो खड़ा कर लेंगे लेकिन न तो गम्भीर प्रयास कर सकेंगे और न ही समस्या का हल सामने आएगा। यदि आप वाकई पेड़ बचाना चाहते हैं (और यह कि उससे खिंचकर बारिश भी चली आए) तो आपको ज्यादा कुछ नहीं करना होगा, सिर्फ झूठे दिखावे से बचना ही न जाने कितनी हरियाली को बचा सकता है। यदि आप अच्छी, मजबूत और चमकदार लकड़ी के महंगे फर्नीचर से थोड़ी दूरी बनाकर उसके विकल्प लेना शुरु कर दें तो जंगलों से कट रही लकड़ी की खपत ही नहीं होगी और बाजार का सिद्धान्त यही है कि जिस चीज के लेवाल ही न हों उसका खात्मा नहीं होता। वैसे ऐसा कर पाना न आसान तो नहीं है लेकिन तरीका सिर्फ यही है।

जिन लोगों को आप और मैं जंगल काटने का दोषी मानते हैं उनकी गलती इतनी बड़ी नहीं है जितनी हमारी। आखिर क्या मजा मिल जाता है हमें सागौन की लकड़ी के मोटे-मोटे दरवाजे लगवाकर? या चमकदार मेज-सोफे बनवाकर? महज दिखावा ही न. ..वह भी तब जबकि उस दरवाजे की जगह लगवाने के लिए कहीं बेहतर विकल्प हमारे पास मौजूद हैं। हर शहर में लकड़ी के बिकने के ठीये हैं और यहां लकड़ी कहां से आती है यह सभी को पता है। बाजार का दबाव इतना ज्यादा है कि न तो सरकार इसे रोक सकती है और न मुनाफाखोर। हर जगह के अपने वीरप्पन हैं जो जंगलों से धीरे-धीरे मिलने वाले फायदों की जगह उन्हें काटकर बेच देने में ज्यादा रुचि लेते हैं। अब एक और फैक्टर पर नज़र डालें, सरकार ने अब तक यही किया है कि जंगलों को काटने का ईनाम लोगों को पट्टों के तौर पर दिया है और इससे लालच इतना बढ़ गया कि अब हर जगह जंगल जलाए, काटे और नष्ट किए जा रहे हैं। कुछ स्वार्थी राजनीतिक दल, खासतौर पर लेट जैसी पाटिüयों ने आदिवासियों तक को अपने फायदे के लिए इस होड़ में झोंक दिया है। बात सम्भाली नहीं गई तो आलम यही होगा कि आसमान में छाए बादल हरियाली नहीं देखकर लौट जाते रहेंगे और हम बारिश की हर बून्द के लिए तरसते रहेंगे।

अब जरा उस गणित की तरफ भी देख लें जो लकड़ी से मुनाफाखोर कमाते हैं। महज 100 रुपए के बदले एक आदिवासी भारी सागौन काटकर और 20 से 30 किलोमीटर उसे उठाकर ले जाता है। यहां से वह मुनाफाखोर के हाथ में होती है और यह लकड़ी आप कम से 8,000 रुपए में लेते हैं। 100 रुपए पाने वाला नहीं जानता कि उसने हर तरह से खुद को घाटे में डाला है लेकिन मुनाफाखोर मध्यस्थ जानते हैं और उससे भी बढ़कर खुद आप जानते हैं। इसके बावजूद यदि आप टिंबर मार्केट में खड़े सागौन का भाव पूछ रहे हैं तो आप भी बताइये बारिश को आखिर क्यों आ जाना चाहिए?

Thursday, August 19, 2010

और बना डालिए नियम कायदे


चॉकलेट देखकर बिना इजाजत उसे खा लेने वाले ब\"ो को मिठास घुलने पर अहसास हो जाए कि वह गलत था। चोरी के अहसास कोे उसने समझ लिया लेकिन यदि वह खुद न कबूले तो आप पकड़ भी न पाएं कि ढेर में से एक चॉकलेट कम हो गई है। उस ब\"ो के साथ आप क्या सुलूक करेंगे? यदि आप उसे कड़ी सजा देने के पक्षधर हैं तो बताइये कि क्या भारत के लंबे चौड़े संविधान में इसके लिए कोई धारा या उपधारा है जो उसे गलत ठहराए? शायद ही श्रीलंकाई संविधान में ऐसा कोई क्लॉज हो तो बीसीसीआई और आईसीसी के नियमों के पुलिन्दों की तो बात छोçड़ए।

यहीं से प्रश्न उठता है कि कोई बिना इजाजत रणदीव (तिलकर%े या संगकारा) को सजा क्यों मिलनी चाहिए। क्या इससे यह सन्देश नहीं जाता कि गलती (जो कि गलती थी ही नहीं) मान लेना खुद को मुश्किल में डाल लेने जैसा है। क्या कोई ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी भी उसी ईमानदारी से यह बात मान लेता जिस तरह रणदीव ने मान ली, या वह इस पर सीनाजोरी करता हुआ कहता कि बताइये मैंने क्या गलती की है। आप उसे खेल भावना की बात कहते तो वह कह देता कि साहब इन नियमों के अलावा मैं किसी खेल भावना को नहीं जानता। कोई उजड्ड खिलाड़ी होता तो उसके पास तर्क-वितर्क के अलावा सीनाजोरी के भी पर्याप्त अवसर थे और इनका सहारा लेने पर शायद ही उसे सजा मिलती।

तो क्या हम चाहते हैं लोग दिल की आवाज सुनकर अपना अहसास बताने की बजाए ऐसी सीनाजोरी करें? रणदीव की सजा से तो यही सन्देश जाता है। बात यहीं नहीं रुकेगी। कोई बताए कि नेा या वाइड फंेकने या जानबूझकर रन फेंक देने(जैसा सहवाग ने एक मैच में फीçल्डंग के दौरान किया कि गेन्द को चौके की बाउण्ड्री पर खसका दिया) की हर स्थिति का क्या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कराया जाएगा?

सीधा हिसाब है, या तो आप सारे नियम ताक पर रखकर एक सूत्र थमा दें कि हर व्यक्ति सौ फीसदी ईमानदार कोशिश करेगा या निकालिए नियमों-उपनियमों, धाराओं-उपधाराओं, बहस-मुबाहिसों की वह कड़ी जो कई नए मुद्दे पेश कर देगी लेकिन इसका हल नहीं दे सकेगी। यदि रणदीव का नो-बॉल फेंकना गलत था तो टेस्ट मैच में गेन्दों को पैड पर झेलना क्यों और कैसे सही है? यह प्रç्रकया एक टेस्ट मैच के 4भ्0 ओवर्स के दौरान कितनी बार होती है बताने की जरूरत नहीं। हर्डल के बहाने बैट्समैन की एका्रग्रता भंग करना और गेन्दबाज को बार-बार रनअप पर जाने को मजबूर करना आखिर बेईमानी नहीं तो क्या है? इन्हें कभी आप माइण्ड गेम कहकर खुश होते हैं क्योंकि वे हमारे पसन्द के खिलाड़ी कर रहे होते हैं जबकि विरोधी करे तो यह अक्षय अपराध हो जाता है। यहां तक कि गाली बकने तक के मामले भी अआपसी समझबूझ के नाम पर माफ कर दिए जाते हैं। भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को रणदीव के रूप में एक नत्था मिल गया हो लेकिन इस घटना ने नियमों के बौनेपन को साबित कर दिया है।

इसी बात का कैनवास थोड़ा और बड़ा कर दिया जाए तो साफ है कि चन्द जरूरी नियमों को छोड़ दें तो बाकी सारी काली किताबें भावनाएं कुचलने के अलावा किसी काम की नहीं हैं। इतने नियमों-कायदों, अंपायरों और थर्ड अंपायरों के बावजूद यदि सजा का आधार नैतिकता को बनाया गया है तो समझा जा सकता है कि हम सैकड़ों संशोधनों के बावजूद किस कचरे के ढ़ेर को बढ़ावा दे रहे हैं। रणदीव को बजाए एक सह्दय व्यक्ति के तौर पर लेने के कई लोग उसे शैतान करार देना चाहते हैं। जाहिर है, बीसीसीआई जैसे क्रिकेटी तालिबान के चलते उन्हें माफी मिलने की गुंजाइश तो थी भी नहीं।