
चॉकलेट देखकर बिना इजाजत उसे खा लेने वाले ब\"ो को मिठास घुलने पर अहसास हो जाए कि वह गलत था। चोरी के अहसास कोे उसने समझ लिया लेकिन यदि वह खुद न कबूले तो आप पकड़ भी न पाएं कि ढेर में से एक चॉकलेट कम हो गई है। उस ब\"ो के साथ आप क्या सुलूक करेंगे? यदि आप उसे कड़ी सजा देने के पक्षधर हैं तो बताइये कि क्या भारत के लंबे चौड़े संविधान में इसके लिए कोई धारा या उपधारा है जो उसे गलत ठहराए? शायद ही श्रीलंकाई संविधान में ऐसा कोई क्लॉज हो तो बीसीसीआई और आईसीसी के नियमों के पुलिन्दों की तो बात छोçड़ए।
यहीं से प्रश्न उठता है कि कोई बिना इजाजत रणदीव (तिलकर%े या संगकारा) को सजा क्यों मिलनी चाहिए। क्या इससे यह सन्देश नहीं जाता कि गलती (जो कि गलती थी ही नहीं) मान लेना खुद को मुश्किल में डाल लेने जैसा है। क्या कोई ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी भी उसी ईमानदारी से यह बात मान लेता जिस तरह रणदीव ने मान ली, या वह इस पर सीनाजोरी करता हुआ कहता कि बताइये मैंने क्या गलती की है। आप उसे खेल भावना की बात कहते तो वह कह देता कि साहब इन नियमों के अलावा मैं किसी खेल भावना को नहीं जानता। कोई उजड्ड खिलाड़ी होता तो उसके पास तर्क-वितर्क के अलावा सीनाजोरी के भी पर्याप्त अवसर थे और इनका सहारा लेने पर शायद ही उसे सजा मिलती।
तो क्या हम चाहते हैं लोग दिल की आवाज सुनकर अपना अहसास बताने की बजाए ऐसी सीनाजोरी करें? रणदीव की सजा से तो यही सन्देश जाता है। बात यहीं नहीं रुकेगी। कोई बताए कि नेा या वाइड फंेकने या जानबूझकर रन फेंक देने(जैसा सहवाग ने एक मैच में फीçल्डंग के दौरान किया कि गेन्द को चौके की बाउण्ड्री पर खसका दिया) की हर स्थिति का क्या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कराया जाएगा?
सीधा हिसाब है, या तो आप सारे नियम ताक पर रखकर एक सूत्र थमा दें कि हर व्यक्ति सौ फीसदी ईमानदार कोशिश करेगा या निकालिए नियमों-उपनियमों, धाराओं-उपधाराओं, बहस-मुबाहिसों की वह कड़ी जो कई नए मुद्दे पेश कर देगी लेकिन इसका हल नहीं दे सकेगी। यदि रणदीव का नो-बॉल फेंकना गलत था तो टेस्ट मैच में गेन्दों को पैड पर झेलना क्यों और कैसे सही है? यह प्रç्रकया एक टेस्ट मैच के 4भ्0 ओवर्स के दौरान कितनी बार होती है बताने की जरूरत नहीं। हर्डल के बहाने बैट्समैन की एका्रग्रता भंग करना और गेन्दबाज को बार-बार रनअप पर जाने को मजबूर करना आखिर बेईमानी नहीं तो क्या है? इन्हें कभी आप माइण्ड गेम कहकर खुश होते हैं क्योंकि वे हमारे पसन्द के खिलाड़ी कर रहे होते हैं जबकि विरोधी करे तो यह अक्षय अपराध हो जाता है। यहां तक कि गाली बकने तक के मामले भी अआपसी समझबूझ के नाम पर माफ कर दिए जाते हैं। भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को रणदीव के रूप में एक नत्था मिल गया हो लेकिन इस घटना ने नियमों के बौनेपन को साबित कर दिया है।
इसी बात का कैनवास थोड़ा और बड़ा कर दिया जाए तो साफ है कि चन्द जरूरी नियमों को छोड़ दें तो बाकी सारी काली किताबें भावनाएं कुचलने के अलावा किसी काम की नहीं हैं। इतने नियमों-कायदों, अंपायरों और थर्ड अंपायरों के बावजूद यदि सजा का आधार नैतिकता को बनाया गया है तो समझा जा सकता है कि हम सैकड़ों संशोधनों के बावजूद किस कचरे के ढ़ेर को बढ़ावा दे रहे हैं। रणदीव को बजाए एक सह्दय व्यक्ति के तौर पर लेने के कई लोग उसे शैतान करार देना चाहते हैं। जाहिर है, बीसीसीआई जैसे क्रिकेटी तालिबान के चलते उन्हें माफी मिलने की गुंजाइश तो थी भी नहीं।
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