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Monday, May 9, 2016

सागौन का दरवाजा

आखिर क्यों आ जाना चाहिए उसे, सिर्फ इसलिए कि हम दीनहीन की तरह उसे पुकार रहे हैं? कब ऐसा हुआ कि हमने लकड़ी का मोलतोल करने से बचने की ईमानदार कोशिश की हो? यदि हम बाजार संस्कृति में जी रहे हैं तो हमें इसी तरीके से समस्याओं से भी जूझना होगा। नारों, दावों और वादों से आप हंगामा तो खड़ा कर लेंगे लेकिन न तो गम्भीर प्रयास कर सकेंगे और न ही समस्या का हल सामने आएगा। यदि आप वाकई पेड़ बचाना चाहते हैं (और यह कि उससे खिंचकर बारिश भी चली आए) तो आपको ज्यादा कुछ नहीं करना होगा, सिर्फ झूठे दिखावे से बचना ही न जाने कितनी हरियाली को बचा सकता है। यदि आप अच्छी, मजबूत और चमकदार लकड़ी के महंगे फर्नीचर से थोड़ी दूरी बनाकर उसके विकल्प लेना शुरु कर दें तो जंगलों से कट रही लकड़ी की खपत ही नहीं होगी और बाजार का सिद्धान्त यही है कि जिस चीज के लेवाल ही न हों उसका खात्मा नहीं होता। वैसे ऐसा कर पाना न आसान तो नहीं है लेकिन तरीका सिर्फ यही है।

जिन लोगों को आप और मैं जंगल काटने का दोषी मानते हैं उनकी गलती इतनी बड़ी नहीं है जितनी हमारी। आखिर क्या मजा मिल जाता है हमें सागौन की लकड़ी के मोटे-मोटे दरवाजे लगवाकर? या चमकदार मेज-सोफे बनवाकर? महज दिखावा ही न. ..वह भी तब जबकि उस दरवाजे की जगह लगवाने के लिए कहीं बेहतर विकल्प हमारे पास मौजूद हैं। हर शहर में लकड़ी के बिकने के ठीये हैं और यहां लकड़ी कहां से आती है यह सभी को पता है। बाजार का दबाव इतना ज्यादा है कि न तो सरकार इसे रोक सकती है और न मुनाफाखोर। हर जगह के अपने वीरप्पन हैं जो जंगलों से धीरे-धीरे मिलने वाले फायदों की जगह उन्हें काटकर बेच देने में ज्यादा रुचि लेते हैं। अब एक और फैक्टर पर नज़र डालें, सरकार ने अब तक यही किया है कि जंगलों को काटने का ईनाम लोगों को पट्टों के तौर पर दिया है और इससे लालच इतना बढ़ गया कि अब हर जगह जंगल जलाए, काटे और नष्ट किए जा रहे हैं। कुछ स्वार्थी राजनीतिक दल, खासतौर पर लेट जैसी पाटिüयों ने आदिवासियों तक को अपने फायदे के लिए इस होड़ में झोंक दिया है। बात सम्भाली नहीं गई तो आलम यही होगा कि आसमान में छाए बादल हरियाली नहीं देखकर लौट जाते रहेंगे और हम बारिश की हर बून्द के लिए तरसते रहेंगे।

अब जरा उस गणित की तरफ भी देख लें जो लकड़ी से मुनाफाखोर कमाते हैं। महज 100 रुपए के बदले एक आदिवासी भारी सागौन काटकर और 20 से 30 किलोमीटर उसे उठाकर ले जाता है। यहां से वह मुनाफाखोर के हाथ में होती है और यह लकड़ी आप कम से 8,000 रुपए में लेते हैं। 100 रुपए पाने वाला नहीं जानता कि उसने हर तरह से खुद को घाटे में डाला है लेकिन मुनाफाखोर मध्यस्थ जानते हैं और उससे भी बढ़कर खुद आप जानते हैं। इसके बावजूद यदि आप टिंबर मार्केट में खड़े सागौन का भाव पूछ रहे हैं तो आप भी बताइये बारिश को आखिर क्यों आ जाना चाहिए?

1 comment:

lori said...

विचारोत्तेजक रचना....