Pages

Tuesday, January 17, 2017

सोनचंपा की खुशबू सा मुकुल स्वर


मरीन ड्राइव के मुहाने पर बनी एनसीपीए के विशाल ऑडिटोरियम के दरवाजे पर लगी लंबी लाइन, धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए जब हम दरवाजे तक पहुंचते हैं तो टिकट के साथ इस मखमली खुशबू वाले फूल से स्वागत किया जाता है। कौन सा फूल है जिसकी महक थोड़ी थोड़ी पहचानी सी है। नाम बताया गया सोन चंपा...आेह वही नागचंपा का भाई बंद फूल जिसको लेकर मैं बचपन से दीवाना रहा हूं। जो अक्सर मैं फॉरेस्ट रेस्ट हाउस से ले आता था और डांट खाता था कि इसकी खुशबू से सांप खिंचे चले आते हैं मत लाया करो इन्हें। क्या पहले कभी ऐसी सोनचंपा यहां इस तरह कभी महकी होगी? यह सोचते सोचते मैं अपनी सीट पर पहुंच गया हूं तो चकित हूं कि परफॉर्मिंग आर्ट के लिए इस कदर बेहतरीन मंच और ऑडिटोरियम भी हो सकता है... तो क्या यहां मुकुल किसी अलग अंदाज में नजर आएंगे? गाने का तो उनका अपना अंदाज है जो न बदला है न बदलेगा लेकिन मिलने का उनका अपना अंदाज है जो कभी एक बार से दूसरी बार में मेल नहीं खाता। सीट पर मेरे बैठने से लेकर मुकुल जी के मंच तक आने पर कई फ्लैशबैक कौंधे जो आज साल भर बाद सारे और हूबहू तो याद नहीं हैं लेकिन कुछ खास तो याद ही हैं।
फ्लैश 1-सबसे स्याह याद, दफ्तर में काम निपटाते अंधेरा हो चला है कि अचानक एक फोन आता है। मुकुल जी का आज बर्थडे है और जिस नशा मुक्ति केंद्र में हैं वहां किसी को यह बात पता नहीं हैं, यह भी नहीं कि कौन से सेंटर पर। पंद्रह मिनट बाद जाकर साफ होता है कि सरकारी नशामुक्ति केंद्र में हैं और यह बाणगंगा के पागलखाने के भीतर ही एक हिस्से में है। अपने रिपोर्टर से कहता हूं कि जैसे भी हो मिलने चलना है तो वह समझाने की जुगत में है कि सेंटर पर इतनी रात गए किसी से मिलना मुश्किल होगा लेकिन मेरी जिद के बाद वह व्यवस्था करा देता है। शायद अमावस की रात बिजली पूरे कैंपस में नहीं है, मैं सेंटर के मेंटर से ख्वाहिश जताता हूं कि मुकुल जी से मिलना है तो वह कहता है एक ही मोमबत्ती है इसलिए मैं उन्हें बाहर ही ले आता हूं। उसे बिना बताए मैं भी अंदर चला जाता हूं और उनके साथ ही बाहर लौटता हूं। वो अपनी बार बार डिमांड के बीच कुछ गुनगुनाते हैं और हम हैं कि बर्थडे ब्वॉय की जरा सी इच्छा पूरी कर सकने की हालत में होने के बावजूद पूरी नहीं कर सकते। भारी मन से उन्हें लौटते हुए कायम है गुनगुनाहट...
फ्लैश 2-रिवर साइड के एक दुकाननुमा घर या घरनुमा दुकान में रुके मुकुल को दीदी के घर तक लाने और खाने के बाद सुपारी के साथ मघई बनने तक के बीच भी कई बार वही हलके हलके सुर गूंज रहे हैं। रातरानी देखकर खुश होते हुए और बगिया की तारीफ करते हुए...
फ्लैश 3-गांधी हॉल का खचाखच भरा हॉल, मंत्री से लेकर संतरी तक सब दरी पर बैठकर उस अनुशासन से मुकुल जी को सुनते हुए जिसमें भर गर्मी में पंखे तक बंद कर दिए गए हैं लेकिन मजाल कि कहीं कोई उफ हो। दिल तक तर कर देने वाली रात लेकिन जब कार्यक्रम खत्म करते हुए मुकुल उठे तो लगे कि कितनी प्यास तो बाकी ही रह गई है। संगीत निष्ठा की परंपरा वाले इंदौर के सबसे सफल संगीत आयोजनों में से एक...
फ्लैश 4-खजूरी बाजार के पीछे एक घर की पहली मंजिल, निहायत घरेलू सा धार्मिक कार्यक्रम। खुद के लिए तबले की संगत खुद ही देते हुए। लंबी बैठक और कई सारे अभंग व भजन। कुछ चुनिंदा लोगों के बीच बिलकुल घर जैसे बातावरण में किसी दैवीय आवाज का अहसास...
फ्लैश 5-रेडियो कॉलोनी वाले मकान के ठीक पड़ोस में 'अज्ञातवास' के दौरान अचानक मिले, कितनी भी देर बैठ लें उनके पास समय कम पड़ ही जाता है। न जाने कितनी बातें होती हैं लेकिन दुनियादारी की एक भी नहीं या तो संगीत से जुड़ी कोई बात या स्वाद की या कुछ अपनी यात्रा की...
...और भी फ्लैशबैक पलटकर आएं इससे पहले ही करीने की वेशभूषा में संगतकारों के साथ मुकुल आ बैठते हैं। उनके आते ही महफिल सज जाती है बिना किसी औपचारिकता के। मुंबई के सुधीजन ही नहीं और भी कई शहरों से आए हुए लोग मौजूद हैं। आवाज का जादू तारी होता जाता है। प्यास बुझती जाती है और उसी दर से बढ़ती भी जाती है। चार घंटे कब निकल जाते हैं पता भी नहीं चलता। पूरा ऑडिटोरियम सोन चंपा और मुकुल के सुरों की महक से भरा हुआ है इसलिए इसे छोड़ने की इच्छा ही नहीं हो रही लेकिन दस्तूर यही है कि हर सुहाने सपने तक की मियाद तय है...जमुना किनारे मेरो गांव के साथ मुकुल श्रोताओं को कार्यक्रम समाप्त होने की सूचना देते हैं तो पूरा हॉल इतनी देर तक तालियां बजाता रहता है जितनी शायद की इस हॉ में किसी कलाकार को एक साथ मिली होंगी। बाहर निकलते तक सोन चंपा की खुशबू सुरीली भी हो गई लगती है। पूरे सप्ताह वो तीन फूल घर को महकाते रहे जिन्होंने आज मुझे सोनचंपा का यह पौधा लाने पर विवश कर दिया है। उन सुरों का खुमार अब भी तारी है। नाटक से लेकर फिल्मों तक कितनी ही बार समीक्षाएं लिखने का काम पड़ा लेकिन सब यदि तुरंत लिख लिया तो ठीक। यह पहला मौका है जब किसी कार्यक्रम पर साल भर बाद भी याद साझा करना ऐसा लग रहा है जैसे बस अभी तो खत्म हुई हो सुरों की यह महफिल। हद हद जाए हर कोई अनहद जाए न कोय की कबीराना तर्ज पर इस महफिल को जताना हो तो यही कहा जा सकता है कि
हद हद गाए हर कोई अनहद गाए न कोय...और गाते गाते अनहद तक पहुंच जाए वह नाम बस एक ही हो सकता है मुकुल शिवपुत्र।

No comments: